मयंक मुरारी
भारतवर्ष की आत्मा उसके धर्म और संस्कृति में बसती है। बिना इसके राष्ट्र-जीवन का कोई कल्पना नहीं है। राष्ट्र-जीवन का प्राण तीर्थ, पर्व, ऋतु राग, उत्सव में बसता है। तीर्थ देश का लघु रूप है। तो पर्व काल का प्रवाह है। ऋतु राग है, तो उत्सव उस राग का रस है। सूर्य के आगमन भगवान विष्णु का पहला चरण है, तो दोपहर दूसरा और सांध्यवेला तीसरा पग है। यहां नदियां माता का आशीष है तो पहाड़ पिता का पुण्य है। हमारे पूर्वजों ने देश के दुर्गम और अलघ्य पर्वत श्रृंखलाओं में तीर्थयात्राओं के लिए कई स्थलों को जागृत एवं तपस्थल का रूप दिया। भगवान राम राज्याभिषेक के पूर्व तीर्थाटन करते हैं। तो पांडव भी तीर्थयात्रा करते हैं। जीवन में सनातन की खोज ही भारतीय का लक्ष्य रहा और सनातन के तत्वों को तीर्थ, पर्व, उत्सव, और यात्राओं ने प्रगाढ़ किया है।
भारतीय जीवन में उत्सव, साहित्य, दर्शन और परंपरा का सनातन सूत्र भी इन ऋतुओं के कारण मिला है। एक बच्चा जन्म लेता है और बड़ा होकर जवान, युवा और बूढ़ा होता है। फिर मृत्यु। जैसा ऋतु परिवर्तन है, वैसा ही परिवर्तन हमारे जीवन काल में आता है। उम्र का बढ़ना, ऋतुओं का परिवर्तन और समय का विभिन्न स्थितियों में रूपांतरण जीवन नहीं है। परिवर्तन में जीवन नहीं है। परिवर्तन समय है। संसार में सब कुछ परिवर्तित होता है। इन काल, इन ऋतु और इन परिवर्तन में जीवन नहीं है। जीवन इनके प्रति जागरण में है। जागरण ही उत्सव है। हमारे अस्तित्व में सदैव उत्सव है। उत्सव हमारे जीने के ढंग में है। जीने के ढंग में आनंद सम्माहित है। इसलिए भारतीय मन हरेक समय, ऋतु और परिवर्तन का उत्सव मनाता है। आनंद खोजता है। जहां आनंद है, वहां जागरण है और जहां जागरण है वहां जीवन है।
संवत्सर में वसंत ऋतु आती है और चली जाती है। पुनः कुछ दिनों के बाद इसका पुनर्जन्म होता है। भारतीय मन कहता है कि अस्तित्व में सदैव ही वसंत हैं। शरद हैं, हेमंत हैं और पतझड़ है। समय की गति चूंकि रैखिक नहीं वृत्तीय होती है, अतएव ऋतुएं बार-बार आती है। उसी प्रकार इस जीवन में शरद, हेमंत और वसंत का रस, रंग और भाव भी हमारे चित्त को बार बार रंगता है, भींगाता हैं और निर्माण करता है। ऋतुएं हमारे मन का निर्माण करती है। हमारा मन शाश्वत की खोज करता है, चित्त सदैव सनातन शिखर की ओर उन्मुख होता है, तो इसके पीछे की उत्प्रेरक शक्ति ऋतुएं हैं।
जीवन ही ईश्वर है। ईश्वर कोई वस्तु या व्यक्ति नहीं है। वह संपूर्ण जीवन है। इस जीवन की खोज ही हमारा लक्ष्य है। जीवन हमारे अंदर है। वही जीवन हमारे बाहर है। इस अस्तित्व के चराचर तत्वों- सूर्य, तारे, आकाश, बादल, पृथ्वी, जंगल, समुद्र, हवा, वृक्ष, जानवर में जीवन है। यह सारा अस्तित्व जीवन का ही नृत्य और संगीत है। ऋतु हमें जीवन की संपूर्णता का भाव देते है। वह परिवर्तन, रूपांतरण और बढ़ाव तथा घटाव में मदमस्त होना सीखाती है। एक फक्कड़ फकीर गरमी की तपती धूप में भी धूनी लगाता है और मदमस्त हो जाता है। एक सामान्य मन भी बरसात में बालपन की हट करता है। बारिश में भींगता है, दूसरे को भींगोता हैं और तनमन को रसरंग से भर लेता है। शरद के शीत में भी भारतीय मन तल्लीन हो जाता है। शक्ति की आराधना करता है और अपने को ओज और तेज से भर लेता है। इसी प्रकार एक संन्यासी जो निरासक्त होता है, लेकिन वसंत में नाचता है, गाता है। उस दिव्यता को संपूर्णता में जीता है।
ऋतु का दर्शन है कि हरेक समय और स्थिति का उत्सव मनाया जाना चाहिए। हरेक को प्रेम करना चाहिए और जीवन को संपूर्णता में जीना चाहिए। इसी कारण भारतीय मन कर्म पर जोर देता है, उसके फल की बात नहीं करता है। वह जानता है कि वसंत के फूल, बरसात के पत्ते, हेमंत में शरीर (वृक्ष रूपी देह) की साधना से ग्रीष्म में फल मिलेंगे। ऋतु सदैव जीवन को खोजने की बात करता है। हम जीवित है, लेकिन जीवन के साथ तारताम्य नहीं है। हम समय में, परिवर्तन में और रूपांतरण में जीवन की खोज करत है और असफल होते हैं। ऋतु में नया खोज के साथ खुद को नूतन और नवीन करना ही जीवन है। ऋतु सदैव यह बताती है कि वसंत, ग्रीष्म, बरसात, शरद एक परिवर्तन है। हमको उस परिवर्तन के साथ सदैव नया होना है। नूतन रहना है। भारतीय जीवन पर ऋतु प्रभाव के कारण ही हमारा मन सदैव नवीन रहता है। थकता नहीं है। परिवर्तन के साथ खुद को बदल लेता है। गरमी में सत्तू का शर्बत तो जाड़ा में उसी सत्तू से लिट्टी बनाकर खुद को सनातन का सहभागी बना लेता है। बरसात में पत्तों से भोलेनाथ का श्रृंगार करनेवाला वसंत में फूल और फल का भोग लगाता है।
ऋतु की तरह ही इस अस्तित्व के चराचर जीवन और वस्तुओं की गति चक्रीय है। जन्म, यात्रा और मरण के बाद पुनर्जन्म। दिवस, मास, ऋतु, संवत्सर, ग्रह, नक्षत्र, आकाशगंगा सब गतिमान है। समय की सूक्ष्मतम इकाई परमाणु से लेकर दिन, रात, ऋतुएं, आकाशीय तारामंडल, ग्रह, नक्षत्र यहां तक की ब्रह्माण्ड भी चक्रीय गति का अनुसरण करते हैं। इसी प्रकार जीवन भी, चक्रीय गति से चलती है। जन्म, विकास, बचपन, युवा, पौढ़, बुढ़ापा, मृत्यु और पुनः जन्म। चक्रीय गति। लेकिन व्यक्ति क्या देखता है ? मानव को, उसकी गति को। उसको गतिमान करनेवाले काल को नहीं। इसके कारण ही उसे सब कुछ रैखीय विकासमान प्रतीत होता है। जबकि यह समय की गति नहीं, मानव की गतिशीलता है। मानव की गतिशीलता में व्यक्ति की मृत्यु को प्राप्त होना एक खंडन बिंदू या पड़ाव स्थल हो सकता है। एक नये विकास के लिए। लेकिन काल के लिए यह सतत यात्रा है। गतिमान। चक्रीय रूप में। ठीक उसी प्रकार जैसे विराट का सूक्ष्तम से लेकर अनंत गतिमान है। इसे समझने के लिए एक उदाहरण और। हम धरती पर चलते हंै, तो लगता है कि रैखीय या एक दिशा में या सीधा और थोड़ा इधर-उधर चलते हैं। लेकिन तब भी हम चक्रीय चल रहे होते हंै, क्योंकि यह पृथ्वी तो गोल है। और इसकी विराटता के सापेक्ष हमारे पैर या वाहन की गति तो न्यूनतम और सूक्ष्मतम भी, या नगण्य है। ऋतुराग उस विराट दर्शन को ही बार बार प्रकट करता है।
साभार: सनातन उत्सव का देश से ।