सोहराई पेंटिंग से आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रही चिरूडीह गांव की महिलाएं

ब्रजेश कुमार 

खूँटी । झारखण्ड के राँची जिले के तमाड़ प्रखण्ड का छोटा सा गाँव चिरुडीह आज अपनी अनूठी पहचान बना रहा है। जिसमें मुख्य भूमिका निभा रही हैं यहाँ की महिलाएँ, जो झारखण्ड की पारम्परिक सोहराई पेंटिंग के माध्यम से आत्मनिर्भर बनने की राह पर अग्रसर हैं। वहीं झारखण्ड की पुरानी कला सोहराय कला को जीवन्त करने और चाहत का गाँव चिरुडीह एक पहचान बना रहा है। जिसमें कलाकारी के माध्यम से गाँव के इस बदलाव का सूत्रधार एक छात्र मनीष महतो है। जो गाँव की महिलाओं को आगे बढ़ाने के लिए कार्य कर रहा है। हालांकि कुछ महिलाओं में बचपन से शौक और जानकारी रखती है। लेकिन अब इस कला को पूरे गाँव की रंग-रोगन के माध्यम से भी पहचान बना है। वहीं छात्र मनीष महतो की अगुवाई में सोहराय कला को अनेक महिलाएँ सीखकर आर्थिक रूप से सशक्त बनने की दिशा में काम करने लगी है। मनीष महतो के मार्गदर्शन में चिरुडीह की महिलाओं ने पारंपरिक सोहराई पेंटिंग को न केवल सीखा, बल्कि इसे अपनी आजीविका का साधन भी बनाया। घरों की दीवारों पर बनने वाली यह कलाकारी अब कपड़ों, कैनवास और अन्य उत्पादों पर भी उकेरी जा रही है, जिससे इन महिलाओं को आर्थिक लाभ हो रहा है। सोहराई पेंटिंग मुख्य रूप से झारखंड की जनजातीय संस्कृति से जुड़ी है। इसमें पशु-पक्षी, वन्य जीवन, पारंपरिक लोक कथाएं और ग्रामीण संस्कृति के दृश्य उकेरे जाते हैं। यह कला पहले सिर्फ त्योहारों तक सीमित थी, लेकिन अब यह चिरुडीह गांव की पहचान बन चुकी है। मनीष महतो के प्रयास से चिरुडीह गाँव अब अपनी कला के लिए चर्चित हो रहा है। इस पहल के माध्यम से महिलाएं अपने हुनर को निखार रही हैं और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बन रही हैं। इससे गांव की पहचान राष्ट्रीय स्तर तक पहुंच रही है। ऐसे कलाकार, जो गाँवों से आकर अपनी कला को जीवंत बनाए हुए हैं, उनके लिए सरकार को विशेष योजनाएं शुरू करनी चाहिए। इस कला को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों तक पहुंचाने के लिए वित्तीय सहायता, प्रशिक्षण कार्यक्रम और विपणन सुविधाएं दी जानी चाहिए। इससे न केवल इन कलाकारों को पहचान मिलेगी, बल्कि भारत की पारंपरिक कलाएं भी संरक्षित रहेंगी। मनीष महतो और चिरुडीह गांव की यह पहल साबित करती है कि संकल्प और समर्पण से कला केवल सजावट का माध्यम नहीं, बल्कि बदलाव की ताकत भी बन सकती है। मनीष महतो ने बताया कि सोहराय कल झारखंड के पारंपरिक रंग कला है। जिसको जीवंत करने करके संरक्षित करने हेतु आगे बढ़ते हुए कार्य करने की लालसा है। इसलिए गांव की महिलाओं के साथ मिलकर सोहराय रंग-रोगन कला को गांव की दीवारों , घरों , पेड़ पौधों आदि जगहों में बना रहे हैं। ‌ जो पहले कई रंगों की मिशन से बनाया जाता था। वहीं सफेद, लाल , पीली , नीली काली मिट्टी से दिवालों में उकेरकर गाँव की एक अलग पहचान बनाने में लगे हैं। इससे केवल कला आगे नहीं बढ़ेगा इस कलाकारी के माध्यम से महिलाएँ आत्मनिर्भर हो बन रही है। बिंदेश्वरी देवी ने बताया कि 1 वर्ष पहले सोहराय कला के कार्य को आगे बढ़ाने की शुरुआत किए थे और 1 साल बीतते बीतते गाँव के लगभग घरों में बना लिए हैं। सोहराय कला का शौक बचपन से ही था लेकिन दीवारों में नहीं बल्कि कागजों पर बनाते थे अब दीवारों पर भी बनाने लगे हैं। रेखा रानी महतो ने बताया कि हम लोग गांव में 20-25 महिलाएं हैं और हम लोगों के साथ 10-15 बच्चियों भी हैं जो सोहराय पेंटिंग जानती हैं और पूरे गांव को सोहराय पेंटिंग से रंगने का काम कर रहे हैं हम लोग की चाहत है कि इस गाँव का परिचय सोहराय पेंटिंग के नाम से वैश्विक स्तर तक पहचान बने। सोहराय पेंटिंग का शौक बचपन से था लेकिन शादी के बाद ही इसे सीखकर आगे बढ़ाने में कार्य करने लगे हैं। बेबी देवी ने बताई कि 1 वर्ष पहले सोहराय पेंटिंग का काम शुरू किया और पहले कागजों पर बनाते थे। लेकिन धीरे-धीरे करके कपड़ों , तौलिया और फिर गांव में घूम-घूम कर दीवारों में भी सोहराय पेंटिंग की कला को दर्शाने लगे हैं। जमुना देवी ने बताई की कल के क्षेत्र में बचपन से शौक था लेकिन सोहराय पेंटिंग 1 वर्ष पहले शुरू किए हैं और यह आशा है कि इससे आर्थिक पक्ष मजबूती होगी। इसी आशा के साथ सोहराय पेंटिंग का कार्य गांव से शुरू किए हैं देखते हैं आगे हमारी कल कितनी आगे बढ़ सकती है। 

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