मृत्युंजय प्रसाद
खनिज सम्पदाओं से भरपूर झारखण्ड प्रदेश की हमारे देश में एक अलग पहचान है, उसी तरह झारखंड की कला -संस्कृति, पर्व – त्योहार आदि का भी एक अलग ही पहचान है। यहां का लोक-जीवन संगीतमय रहा है, यहां के लोक -जीवन के संबंध में एक लोकोक्ति काफी प्रचलित है – ‘‘झारखंड में चलना ही नृत्य और बोलना ही गीत है।‘‘ इसी प्रकार पर्व त्योहार के संबंध में भी एक उक्ति काफी प्रचलित है- ‘‘बारह मासे तेरह परब‘‘। झारखंड में कोई ऐसा महीना नहीं है जिसमें कोई न कोई पूजा, अनुष्ठान, त्योहार या मेला न लगता हो। जिस प्रकार झारखण्ड में करमा और सरहुल बड़े उमंग और हर्षोल्लास के साथ मनाया जाने वाला पर्व है , उससे भी अधिक उमंग और हर्षोल्लास के साथ मनाया जाने वाला यदि कोई पर्व है तो वह है ‘‘टुसू‘‘। ‘‘टुसू‘‘ पर्व मूलतः झारखण्ड का सर्वाधिक लोकप्रिय एवं महत्वपूर्ण त्योहारों में से एक है, लेकिन झारखंड के पंच परगना (सिल्ली, राहे, बुण्डू, तमाड़ और बारेन्दा) क्षेत्र में यदि टुसू पर्व को पंच परगना क्षेत्र का महापर्व कहा जाय तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
वैसे तो टुसू पर्व की शुरुआत अगहन संक्रान्ति के दिन से ही होता है। अगहन संक्रान्ति की संध्या को प्रत्येक गांव की कुंवारी कन्या गांव के ही किसी के घर के एक कमरे में एकत्रित होती हैं और उस कमरे की लिपाई -पोताई कर बांस की टोकरी में गेंदा फूल से सजाकर और धूप – धूना दिखाकर टुसू की स्थापना करते हैं। इस अवसर पर गाया जाने वाला एक गीत जो काफी प्रचलित है-
आमरा जे मां टुसू थापी अगहन सांकराइते गो ।
अबला बाछुरेर गबर आलो चाउलेर गुंड़ी गो ।।
इस तरह गांव की कुंवारी कन्या प्रत्येक दिन शाम को उसी स्थान पर एकत्रित होकर टुसू की आरती उतारती हैं और टुसू गीत गाती हैं। यह सिलसिला लगभग एक माह तक चलता है। मकर संक्रान्ति के पहले दिन को बाउंड़ी कहा जाता है उस दिन गांव की सभी कंवारी कन्या एवं अन्य महिलाएं आस पास के हाट-बाजारों में जाकर नये-नये कपडे़ और टुसू खरीदती हैं। टुसू पटसन और रंगीन कागजों से निर्मित एक मंदिरनुमा आकृति होता है। टुसू के निर्माण को लेकर भी कई गीत प्रचलित हैं जैसे-
सन खाड़ी भाई कागजेर टुसू ।
चलो देखते जाबो एक टुकू ।।
साया साड़ी जगाड़ कर ।
आइसछे मकर दू दिन सबुर कर।।
उसके बाद 14 जनवरी को मकर संक्रान्ति के दिन गांव की सभी कुंवारी कन्या एवं अन्य महिलाएं टुसू गीत गाते हुए पवित्र नदी या जलाशय में जाकर स्थापित की हुई टुसू का विर्सजन कर देती हैं और पवित्र नदी या जलाशयों में स्नान कर नये-नये वस्त्र पहनकर चूड़ा, मूढी, गुड़ पीठा आदि खाकर टुसू गीत गाते हुए अपने -अपने घर लौटते हैं। टुसू पर्व की एक खास विशेषता यह है कि चाहे वह अमीर हो या गरीब सभी घरों में गुड़ पीठा और मीट बनता है। टुसू पर्व में कोई पूजा-पाठ नहीं होता है। यह पूर्ण रुप से खाने -पीने और मौज-मस्ती का त्योहार है। जैसा कि टुसू पर्व को लेकर पंचपरगना क्षेत्र में उक्ति चरितार्थ है-
सभे परबे लागेइक धूप-धूना।
पूष परबे पेट पूजा मास तियन दोना-दोना ।।
मकर संक्रान्ति के दूसरे दिन यानी पहला माघ से टुसू मेला का दौर शुरु होता है। पंचपरगना क्षेत्र का पौराणिक और प्रसिद्व टुसू मेला सतीघाट मेला सोनाहातु प्रखंड अंतर्गत बारेन्दा ग्राम स्थित राढू, कांची और स्वर्णरेखा नदी के संगम स्थल स्वर्णरेखा नदी के पावन तट पर प्रतिवर्ष लगता है। सतीघाट मेला में झारखंड, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा आदि राज्यों से लाखों की संख्या में लोग पहुंचते हैं। सतीघाट मेला झारखंड का प्रसिद्व और सबसे बड़ा मेला है। सतीघाट मेला के दिन सुबह से ही लोग नहा धोकर नये-नये वस्त्र पहनकर सतीघाट मेला के लिए प्रस्थान करते हैं। इस दिन किसान हल जोतकर एवं गोबर काट कर खेती कार्य का शुरुआत भी करते हैं। गांव के महिला-पुरुष गाजे-बाजे के साथ हाथ में टुसू लेकर नाचते-गाते सतीघाट मेला जाते हैं और स्वर्णरेखा नदी के पवित्र जल में टुसू का विर्सजन करते हैं। टुसू के विर्सजन के समय जो गीत गाया जाता है, वह इस तरह से है-
जले हेल जले खेलो जले तुमार के आछे।
मने ते बुझिंये देखो जले ससुर घर आछे।।
तिरिस दिन राखिलाम टुसू तिरिस सलता पालि गो।
आर कि राखिते पारि मकर हइल बासि गो।।
टुसू मेला का यह दौर करीब एक माह तक झारखंड के विभिन्न क्षेत्रों में चलते रहता है। सतीघाट मेला के दूसरे दिन सिल्ली प्रखंड के कोंचो गांव में स्वर्णरेखा नदी के पावन तट पर हरिहर मेला लगता वहां भी लाखों की संख्या में लोग पहंुचते हैं। इस तरह इस अवसर पर लगने वाले प्रमुख मेलों में वानसिंग मेला, नीलगिरी मेला, पानला मेला, सिरगिटी मेला, अबुआ मेला, सूर्य मंदिर मेला आदि प्रमुख है। पुन 15 फरवरी को द्वितीय सतीघाट मेला के साथ टुसू पर्व का समापन हो जाता है। टुसू के समापन पर एक गीत जो काफी प्रचलित है-
साया साड़ी बासकांय भर।
गेेलो परब जाल ससुर घर।।
टुसू पर्व की उत्पति के संबंध में कहा जाता है कि टुसू कांशीपुर के राजा की अति सुन्दर पुत्री थी। जिसका असमय ही मृत्यु हो गयी थी। टुसू की मृत्यु के बाद राजा काफी उदास रहते थे और पुत्री की मृत्यु से उबर नहीं पा रहे थे। राजा की यह हालत देखकर प्रजा भी काफी दुखी थे । इस बीच राजा के दरबारियों ने राजा को खुश करने के लिए टुसू की मूर्ति बनाकर राजा को दिखाया तो राजा काफी खुश हो गाये और प्रसन्न रहने लगे। उसी की याद में प्रति वर्ष यह टुसू पर्व मनाया जाता है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और सिविल कोर्ट रांची के अधिवक्ता हैं)