
आदमी की सबसे बड़ी खोज क्या है? चक्का? बिजली? अंतरिक्ष यान? नहीं साहब, उसकी सबसे बड़ी खोज है घोड़े की लगाम! घोड़ा इधर-उधर भटके, बगल में खड़ा होकर हरी घास चबाने लगे, या भूल से गलत गली में घुस जाए, तो बस एक झटके में रास खींचो और उसे सीधा कर दो। लेकिन अपनी जबान? अरे, उसे तो बेलगाम छोड़ रखा है, जैसे कोई जंगली घोड़ा हो जो न सवार की सुनता हो, न रास्ते की परवाह करता हो। घोड़े की लगाम कसने में तो उस्ताद है इंसान, लेकिन अपनी जुबान पर लगाम? वो तो बस सपने की बात है—सपना भी ऐसा जो सुबह होते ही टूट जाए और बिस्तर पर सिर्फ खाली तकिया रह जाए।
दुनिया के हर कोने में चले जाइए—गली, मोहल्ला, बाज़ार, दफ्तर, या संसद का मैदान—हर जगह आपको घोड़े से ज़्यादा बेलगाम जबानें दौड़ती नज़र आएँगी। कोई किसी की इज्ज़त को चटनी की तरह पीस रहा है, तो कोई किसी के चरित्र को कचरे के ढेर में बदल रहा है। और अगर सोशल मीडिया पर कदम रखें, तो लगेगा कि घोड़े की रेस तो पुरानी बात हो गई, अब असली दौड़ है कीबोर्ड की उंगलियों और जुबान की रफ्तार की! यहाँ हर शख्स खुद को शब्दों का सिकंदर समझता है। तथ्य चाहिए? अरे, वो किस खेत की मूली है! प्रमाण चाहिए? उसकी क्या ज़रूरत! बस बोल दो, ट्वीट कर दो, मीम बना दो, ट्रोल कर दो—जुबान की लगाम तो ढीली ही रहने दो, घोड़े को तो देख लेंगे बाद में।
अब ज़रा राजनीति के रणक्षेत्र में झाँकिए। यहाँ तो शब्दों की तलवारें ऐसी चलती हैं कि असली तलवार भी शरमा जाए। चुनाव का मौसम आए नहीं कि नेताओं की जबानें बेलगाम घोड़ों की तरह दौड़ पड़ती हैं। एक-दूसरे पर तंज कसना, झूठे वादों की बारिश करना, और वोटरों को सपनों के महल दिखाना—इन सब में इनकी जबान को कोई रोक नहीं सकता। मज़े की बात ये कि अगर घोड़ा तेज़ भागे तो उसे काबू करने के लिए पूरा ज़ोर लगा देंगे, लेकिन जबान की रफ्तार? उसे तो और हवा मिले, तभी तो शान बढ़े! “हमने तो ऐसा बोल दिया कि हवाएँ थम गईं”—वाह रे वाह, ऐसा गर्व कि घोड़ा भी सोचे, “मुझ पर इतना भरोसा क्यों नहीं करते ये लोग?”
घर की बात करें तो वहाँ भी यही तमाशा है। सास-बहू की तू-तू-मैं-मैं हो या भाई-भाई का हिसाब-किताब, सब जुबान की मेहरबानी से। एक बार कुछ उल्टा-सीधा बोल दिया, फिर चाहे रिश्ते टूटें, घर बिखरे, या सालों की दोस्ती धूल में मिल जाए—कोई गम नहीं। घोड़ा अगर गिर जाए तो उसे उठाने की फिक्र होगी, लेकिन जुबान का गिरना? अरे, आजकल तो उस पर मेडल मिलता है—”मैं जो सोचता हूँ, वही बोलता हूँ, मुझे किसी की परवाह नहीं!” शाबाश, ऐसी बेलगाम जबान पर गर्व कि घोड़ा भी मुड़कर देखे और कहे, “भाई, मुझे तो कम से कम लगाम मिली है, तुम्हारा क्या हाल है?”
और सोशल मीडिया? ये तो बेलगाम जबानों का असली अड्डा है। सुबह आँख खुलते ही लोग शब्दों के तीर-कमान लेकर मैदान में कूद पड़ते हैं। कोई सरकार को कोस रहा है, कोई समाज को सबक सिखा रहा है। कोई किसी फिल्म स्टार की निजी ज़िंदगी में घुसकर कीचड़ उछाल रहा है, तो कोई किसी अनजान इंसान की इज्जत को सरेराह नीलाम कर रहा है। स्क्रीन की आड़ में ये लोग शब्दों के गोले दागते हैं, मानो दुनिया का हर दुख इन्हीं की जुबान से ठीक होगा। लेकिन हाँ, घोड़े की लगाम कसने में एक सेकंड की देरी नहीं करेंगे—आखिर असली मर्दानगी तो घोड़े को काबू करने में है, जुबान को कौन पूछता है?
अब घोड़े की नज़र से देखें तो बेचारा क्या सोचेगा? सुबह से शाम तक इंसान का बोझ ढोता है, उसकी मर्ज़ी से दौड़ता है, लगाम खिंचवाता है। अगर ज़रा सा बगावत करे, तो कोड़े पड़ते हैं, सज़ा मिलती है। लेकिन जब इंसान अपनी जबान से किसी का गला घोंट दे, किसी का घर उजाड़ दे, तो उसे “ईमानदार” और “निडर” का तमगा मिल जाता है। घोड़ा सोचता होगा, “काश मेरी भी जबान होती, मैं भी कुछ बोलता, शायद तब ये लोग मुझे कम सताते।”
ये विडंबना नहीं तो क्या है? इंसान ने चाँद को छू लिया, समुद्र को चीर दिया, मशीनों को गुलाम बना लिया, लेकिन अपनी जबान को काबू करना उसे आज तक नहीं आया। घोड़े को कंट्रोल कर सकता है, ट्रैफिक को मैनेज कर सकता है, मौसम का हाल बता सकता है, लेकिन अपनी जुबान? वो तो आज़ाद परिंदा है—जहाँ चाहे उड़े, जिसे चाहे चोंच मार दे।
समाज में नियम-कायदे ढेर सारे हैं। गाड़ी की स्पीड लिमिट है, दफ्तर में ड्रेस कोड है, स्कूल में होमवर्क का बोझ है। लेकिन जबान की रफ्तार के लिए? कोई नियम नहीं, कोई लगाम नहीं। घोड़े को काबू करने की ट्रेनिंग स्कूलों में नहीं सिखाई जाती, लेकिन उसकी लगाम कसने का हुनर हर कोई जानता है। पर अपनी जबान को काबू करना? वो तो कोई किताब में नहीं लिखा, न कोई गुरु सिखाता है।
कभी-कभी सोचता हूँ, काश इंसान अपनी जबान को भी घोड़े की तरह कंट्रोल करना सीख लेता। काश उसे अहसास होता कि शब्दों से किसी की ज़िंदगी बन भी सकती है और बिगड़ भी सकती है। काश वो घोड़े की लगाम कसने से पहले अपनी जबान पर भी एक नज़र डाल लेता। लेकिन ये सब सोचकर क्या फायदा? इंसान वही करेगा जो उसकी फितरत है—घोड़े की लगाम कसेगा, और अपनी जबान को आज़ाद छोड़ेगा। और घोड़ा बेचारा दूर खड़ा ये सब देखता रहेगा, सोचता रहेगा—“काश ये लोग अपनी जबान पर भी वही लगाम कस पाते, जो मेरे मुँह में डालते हैं!”
प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी (मप्र)